भूमिका
मानव सभ्यता का विकास न्याय की तलाश में हुआ। पुराने समय में ताकतवर ही न्याय करता था। लेकिन जैसे-जैसे समाज उन्नत हुआ, हम न्याय, कानून और अदालतों की ओर झुकने लगे। लेकिन आज के समाज में एक खतरनाक सच्चाई हमारे सामने खड़ी है — “भीड़तंत्र” (Mob Justice)।
जब जनसामान्य का दबाव अदालत के फैसलों को प्रभावित करता है, तब यह सवाल उठता है —
“अगर हाई कोर्ट का फैसला भीड़ के दबाव में बदल जाए, तो फिर हाई कोर्ट की क्या ज़रूरत है?”
यह प्रश्न केवल गुस्सा या निराशा नहीं दर्शाता, यह राज्य, समाज और कानून व्यवस्था के लिए एक गहरी आत्ममंथन की पुकार है।
भीड़तंत्र क्या है?
भीड़तंत्र एक ऐसा अवैध और भावनात्मक न्याय है, जहाँ उत्तेजित जनता स्वयं ही अपराधी तय कर लेती है और सज़ा देने लगती है। इसमें न तो कानूनी प्रक्रिया होती है, न प्रमाण, न तर्क — केवल गुस्सा और बदला।
यह तथाकथित “न्याय” उत्पन्न होता है:
- अचानक भावनात्मक उत्तेजना से,
- अफवाहों और झूठी खबरों से,
- सामाजिक या राजनीतिक तनाव से,
- और अक्सर — पक्षपात और हिंसा से।
न्यायपालिका का उद्देश्य क्या है?
एक सभ्य देश में अदालतें:
- निष्पक्ष न्याय देने वाली संस्थाएँ होती हैं,
- जहाँ साक्ष्य का परीक्षण होता है,
- दोनों पक्षों की सुनवाई होती है,
- और निर्णय कानून के आधार पर होता है, भावना के नहीं।
हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट केवल फैसला नहीं देते — वे कानून की मिसाल कायम करते हैं और भविष्य के लिए दिशा दिखाते हैं।
अगर न्याय भीड़ करने लगे तो क्या होगा?
यदि न्याय की जिम्मेदारी भीड़ उठाए, तो कई खतरनाक परिणाम होंगे:
1. निर्दोष लोग शिकार बनते हैं
जिस व्यक्ति पर आरोप है वह सच में दोषी है या नहीं — इसका कोई मूल्यांकन नहीं होता, भीड़ उसे दोषी मानकर सज़ा देती है।
2. कानून अप्रासंगिक हो जाता है
जब भीड़ न्याय करती है, अदालतों की भूमिका खत्म हो जाती है।
3. अफवाहें और नफरत फैलती है
एक झूठी सोशल मीडिया पोस्ट भी धार्मिक या सामाजिक हिंसा को जन्म दे सकती है।
4. समाज में असुरक्षा फैलती है
आज कोई एक मारा गया, कल कोई और मारा जाएगा — इस डर से समाज अशांत होता है।
5. राजनीतिक दुरुपयोग की आशंका
कुछ शक्तियाँ जानबूझकर भीड़ भड़काकर अपने राजनीतिक लक्ष्य साधती हैं।
क्या न्यायालय को प्रभावित करना सही है?
यह सबसे महत्वपूर्ण सवाल है। कई बार देखा गया है कि कोई हाई-प्रोफाइल केस में जनता प्रदर्शन कर रही है, मीडिया दबाव बना रही है और अंततः कोर्ट का फैसला उसी ओर झुक जाता है।
लेकिन अगर न्याय भावनाओं और भीड़ के डर से प्रभावित होता है — तो फिर कानून और तर्क कहाँ हैं?
यह न्याय नहीं है, यह है जनता का फैसला, जो कानून नहीं है।
फिर अदालतों की ज़रूरत क्यों?
उत्तर बिल्कुल स्पष्ट है —
अदालतें कानून, प्रमाण और तर्क की प्रतीक हैं।
भीड़ भावना, अफवाह और जल्दबाज़ी की।
हमें अदालतों की ज़रूरत है क्योंकि:
- हम प्रतिशोध नहीं, सच्चाई चाहते हैं,
- हम शोर नहीं, प्रमाण चाहते हैं,
- हम भावना नहीं, तर्क से न्याय चाहते हैं।
क्या करना चाहिए?
राज्य का कर्तव्य:
- भीड़तंत्र के खिलाफ कठोर कानून लागू करें,
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखें,
- नागरिकों को कानूनी जागरूकता दें।
नागरिकों का कर्तव्य:
- अफवाहों से दूर रहें, कानून में विश्वास रखें,
- न्याय के लिए भावना नहीं, सबूत माँगें,
- मुकदमे पूरे हुए बिना किसी को दोषी न मानें।
निष्कर्ष
“अगर हाई कोर्ट का फैसला भीड़ के दबाव में बदल जाए, तो हाई कोर्ट की ज़रूरत क्या है?”
यह सवाल हमारे समाज की गहराई में छुपे संकट को उजागर करता है।
न्याय कभी चिल्लाकर नहीं मिलता — वह मिलता है तर्क, प्रमाण और कानून के रास्ते।
यदि भीड़ ही न्याय करेगी, तो हम फिर उसी अंधकार युग में लौट जाएंगे — जहाँ शक्ति का राज था, न्याय का नहीं।
हमें तय करना है —
क्या हम कानून के शासन वाला देश चाहते हैं, या अराजकता का?