हज क्यों मुस्लिम उम्मा की किस्मत बदलने में असफल हो रहा है?

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हम सभी जानते हैं कि इस्लाम के सबसे महत्वपूर्ण अमल में से एक है हज। हर साल लाखों हाजी मक्का जाते हैं हज करने के लिए। वहाँ वे हज के विभिन्न औपचारिकताओं को पूरी निष्ठा और सटीकता के साथ पूरा करने की कोशिश करते हैं। जैसे कि काबा का तवाफ करना, शैतान को पत्थर मारना, हजरे असवद को चूमना, अराफात के मैदान में एकत्रित होना, बिना सिले कपड़े पहनना, सिर मुण्डवाना, कुरबानी करना आदि।

लेकिन पाठक, क्या हमने कभी सोचा है—हज के समय ये तमाम रस्में क्यों अदा की जाती हैं? बिना कारण तो इन औपचारिकताओं का हुक्म नहीं दिया गया। जरूर इसके पीछे कोई तार्किक और कल्याणकारी कारण, कोई उद्देश्य होगा। आज के लेख में उन्हीं उद्देश्यों को जानने की कोशिश की जाएगी। उम्मीद है कि सच्चाई की तलाश करने वाले मुसलमान इस लेख को ध्यान से पढ़ेंगे और समझने की कोशिश करेंगे, इंशा अल्लाह।

हज का उद्देश्य क्या है?

पाठक, वर्तमान में यह माना जाता है कि हज अल्लाह के बुलावे पर उनके काबा घर में जाकर इकट्ठा होना और इसके माध्यम से अल्लाह की रज़ा (संतुष्टि) प्राप्त करना है। यहाँ पहली बात यह है कि चूँकि हज अल्लाह का दिया हुआ हुक्म है, इसलिए मोमिन जब इस हुक्म को पूरा करेंगे, तब ज़रूर ही अल्लाह की रज़ा हासिल होगी—इसमें कोई शक नहीं।

लेकिन यह हुक्म अल्लाह ने क्यों दिया—यह भी तो जानना ज़रूरी है। क्या हज का उद्देश्य सिर्फ़ अल्लाह के बुलावे पर एकत्र होना है? सिर्फ़ इतना ही? देखिए, अल्लाह तो हमारे बहुत ही क़रीब हैं। पवित्र क़ुरआन में अल्लाह तआ’লা ने फ़रमाया है—”मैं इंसान की गर्दन की नस से भी ज़्यादा क़रीब हूँ।” (सूरह क़ाफ़: १६)

तो फिर, हम जहाँ से भी अल्लाह को पुकारें, वह हमारी बात सुनते हैं। तो फिर उन्हें पुकारने के लिए हज़ारों मील का सफर तय करके मक्का जाना क्यों ज़रूरी है? फिर एक निश्चित मैदान में इकट्ठा होना क्यों ज़रूरी है? इसके अलावा हज में बहुत से नियम-कायदे, शर्तें और रस्में निभानी पड़ती हैं।

लाखों लोगों की भीड़ में, सैकड़ों नियमों का पालन करते हुए क्या अल्लाह को बेहतर ढंग से पुकारा जा सकता है, या फिर एकांत में, ध्यान से पुकारा जाए तो ज़्यादा अच्छा होगा? यक़ीनन अकेले में ज़्यादा ध्यान से पुकारा जा सकता है। लेकिन हज का नियम है कि साल के एक निश्चित समय में लाखों लोगों की भीड़ में हाज़िरी दी जाए। इससे यह साबित होता है कि हज केवल एक रूहानी (आध्यात्मिक) यात्रा नहीं, बल्कि इससे कहीं ज़्यादा है। सवाल उठता है—तो फिर हज वास्तव में है क्या?

पाठक, वास्तविकता यह है कि हज मुस्लिम उम्मत का सालाना महासम्मेलन है। इस महासम्मेलन के दो पहलू हैं—एक दुनियावी और दूसरा रूहानी। जब आप यह लेख पूरी तरह पढ़ेंगे, तब आप खुद समझ जाएंगे कि अल्लाह तआ’ला ने कितनी बारीकी और हिकमत से हज के ज़रिए मुस्लिम उम्मत के रूहानी और दुनियावी मामलों को एक साथ जोड़ा है।

देखिए, इस्लाम का सिस्टम यह है कि पूरी मुस्लिम उम्मत एक क़ौम (राष्ट्र) होगी और उनका इमाम या केंद्रीय नेता एक ही होगा। उस केंद्रीय इमाम की तरफ़ से अलग-अलग क्षेत्रों में अमीर नियुक्त होंगे, और वही अमीर उन क्षेत्रों के प्रशासनिक कार्यों को अंजाम देंगे। और इस काम में मस्जिदें एक प्रकार का सरकारी दफ़्तर बन जाएंगी। इसलिए जब मुसलमान रोज़ाना पाँच वक़्त की नमाज़ के लिए मस्जिद में इकट्ठा होंगे, तो वहाँ अपने छोटे-मोटे स्थानीय समस्याओं का समाधान अमीर के ज़रिए पा सकेंगे।

अगर वहाँ समाधान न हो, तो हफ़्ते में एक बार जुमा की नमाज़ का सिलसिला है, जिसमें इलाके की तमाम समस्याओं पर चर्चा करके हल निकाला जा सकता है। लेकिन सोचिए, अगर कोई मसला राष्ट्रीय स्तर का हो—तो उसका हल कैसे निकलेगा?

इसी के लिए अल्लाह ने रखा है अराफात का मैदान। साल में एक दिन पूरी दुनिया के प्रमुख मुस्लिम नेता हज के मैदान में इकट्ठा होंगे। वहाँ मुस्लिम उम्मत के खलीफ़ा के साथ राजनीतिक, कूटनीतिक, सैन्य व अन्य विभिन्न समस्याओं पर बातचीत होगी, सलाह-मशविरा होगा, योजनाएं बनेंगी, और फ़ैसले लिए जाएंगे। फिर खलीफ़ा अपने हज के ख़ुतबे में पूरी उम्मत को दिशा-निर्देश देंगे।

और इसी तरह हज एक जीवंत, प्रभावशाली माध्यम बन जाएगा—मुस्लिम उम्मत की दुनियावी समस्याओं के समाधान का स्थल।

पाठक, आज संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के सम्मेलन में क्या होता है? पूरी दुनिया से शासक जमा होते हैं और वैश्विक संकटों पर चर्चा करके फैसले लेते हैं। इस्लाम भी पूरी दुनिया के लिए आया है—इसलिए पूरी दुनिया के मुसलमान साल में एक बार एक जगह इकट्ठा होकर सलाह-मशविरा और निर्णय ले सकें, इसके लिए अल्लाह ने हज का हुक्म दिया है।

लेकिन केवल सम्मेलन ही नहीं, हज की हर रस्म और हुक्म में अल्लाह ने उम्मत के लिए दुनियावी और रूहानी बेहतरीन प्रशिक्षण छुपाकर रखा है।

आइए, इस विषय में संक्षेप में थोड़ा जान लेते हैं…

हज के दौरान काबा का तवाफ क्यों किया जाता है?

हम सभी जानते हैं कि हज के एक अहम नियमों में से एक है काबा का तवाफ करना। यह जो काबा का तवाफ करना होता है — इसका मतलब क्या है? क्या हमने कभी इस पर विचार किया है?

असल में, काबा शरीफ़ मुस्लिम उम्मत की एकता का प्रतीक है। और इसी काबा को केंद्र बनाकर दुनिया भर से आए हुए मुस्लिम प्रतिनिधियों को तवाफ करना होता है। इसका अर्थ यह है कि — दुनिया के किसी भी कोने में रहो, तुम सब एक उम्मत हो।

तुम सबका क़िबला एक है। मक़सद एक है। उद्देश्य एक है (और वह है — पूरी दुनिया में अल्लाह के हुक्म और शरीअत को स्थापित करके समूची मानवता को एकता के धागे में बाँधना)।

उस लक्ष्य को हासिल करने के लिए तुम्हें निरंतर आगे बढ़ते रहना होगा, कभी रुकना नहीं है, कभी जड़ नहीं बन जाना है, और उस मक़सद को छोड़कर कोई और उद्देश्य तय नहीं करना है।

शैतान को पत्थर क्यों मारा जाता है?

पाठकगण! हज की एक और रस्म है—शैतान को पत्थर मारना। शैतान कोई ऐसी हस्ती नहीं है जो धरती पर किसी एक निश्चित स्थान पर बैठा हो कि आप उसी दिशा में पत्थर फेंकेंगे और वह उस पत्थर से मारा जाएगा। इसके बावजूद, हाजियों को शैतान की ओर पत्थर फेंकना होता है।

वास्तव में, यह एक प्रतीकात्मक कार्य है। यह हाजियों को अन्याय, असत्य और इब्लीस के खिलाफ सदा सतर्क रहने और निरंतर प्रयास करते रहने की शिक्षा देता है। यह रस्म हाजियों को विरोध की भावना सिखाती है, अत्याचार के खिलाफ खड़े होने की प्रेरणा देती है।

हज के इस मैदान से अपने-अपने क्षेत्रों में लौटकर हाजी इसी तरह अन्याय और असत्य के विरुद्ध आवाज़ उठाएं, संघर्ष करें, जिहाद करें और तागूत (झूठे, ज़ालिम सत्ता) को समाप्त करें—यही इस रस्म की मूल शिक्षा है।

काले पत्थर को चूमना क्यों?

हजरे असवद यानी काले पत्थर को चूमने के पीछे भी एक कारण है, एक उद्देश्य है। क्या इस पत्थर में कोई विशेष शक्ति है कि इसको चूमने से आपको कोई फ़ायदा मिलेगा? या न चूमने से कोई नुकसान हो जाएगा? फिर भी सहाबा इस पत्थर को क्यों चूमा करते थे—यह समझना ज़रूरी है।

हमें याद रखना चाहिए कि पैग़म्बर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कभी भी कोई काम बेमक़सद या निरर्थक नहीं किया। उनके हर अमल के पीछे एक महान दुनियावी और रूहानी उद्देश्य होता है।

असल बात यह है कि जब पूरी दुनिया से लाखों मुसलमान एक साथ इकट्ठा होकर एक ही पत्थर को चूमते हैं, तब यह पत्थर भी मुसलमानों के आपसी सौहार्द, मुहब्बत और भाईचारे का प्रतीक बन जाता है।

जैसे दो व्यक्ति अगर एक ही थाली में खाना खाएं, तो हम देखकर समझ जाते हैं कि उनके बीच कितनी गहरी दोस्ती है। उसी तरह, मेरी व्यक्तिगत राय यह है कि मुस्लिम उम्मत की एकता और अखंडता के लिए अल्लाह ने एक पत्थर तक को माध्यम बना दिया—ताकि जब मुसलमान एक ही पत्थर को चूमें, तो उन्हें यह एहसास हो कि वे एक-दूसरे के कितने क़रीबी हैं, कितने अपने हैं।

इसलिए, इस उम्मत के भीतर आपसी दुश्मनी या द्वेष की कोई गुंजाइश नहीं हो सकती।

ग़ैर-मुसलमानों का प्रवेश वर्जित क्यों है?

सहाबा के दौर में जब हज हुआ करता था, तो काबा शरीफ़ के चारों ओर मक्के के एक निश्चित क्षेत्र में किसी भी ग़ैर-मुसलमान को प्रवेश की अनुमति नहीं थी। आज के ज़माने में भी आप देखेंगे कि मक्का का एक विशेष इलाक़ा ग़ैर-मुसलमानों के लिए प्रतिबंधित है। लेकिन इसका कारण क्या है? अगर ग़ैर-मुस्लिम लोग हज का दृश्य, नमाज़ आदि देख लें तो उसमें परेशानी क्या है?

असल में, इस प्रतिबंध का कारण कुछ और है। पहले ही बताया गया है कि हज मुस्लिम उम्मत का वार्षिक महासम्मेलन है। चूंकि हज के इस सम्मेलन में मुसलमानों के कई आंतरिक विषयों पर चर्चा होती है — जैसे कि रक्षा (डिफेंस) से संबंधित मसलों पर बातचीत और निर्णय — तो अगर ये बातें बाहरी लोगों तक पहुँच जाएं, तो यह मुसलमानों के लिए नुकसानदेह हो सकता है।

इसीलिए — हज के मैदान में ग़ैर-मुसलमानों का प्रवेश वर्जित है। यह कुछ-कुछ उसी तरह है जैसे आधुनिक युग की छावनियों (कैंटोनमेंट्स) में हर किसी को प्रवेश की इजाज़त नहीं होती — केवल डिफेंस से जुड़े लोग ही प्रवेश कर सकते हैं। ठीक वैसे ही, हज का मैदान भी सबके लिए खुला नहीं है।

बिना सिला हुआ सफेद कपड़ा पहनने का कारण क्या है?

पाठकगण, यही से हज का आध्यात्मिक पक्ष शुरू होता है। देखिए, इस्लाम के हर अमल के दो पहलू होते हैं — एक सांसारिक (दुनियावी), दूसरा आध्यात्मिक (रूहानी)। हज भी ऐसा ही है। हज का मैदान एक ओर मुस्लिम उम्मत का वार्षिक महासम्मेलन है, जिससे उनके सांसारिक संकटों का समाधान आता है; ठीक उसी तरह यह आध्यात्मिकता का भी एक परिपूर्ण अभ्यास है।

हज के मैदान में दुनियावी ऐश-ओ-आराम का कोई स्थान नहीं है। यहाँ गोरे-काले, मर्द-औरत, अरब-अजनबी, लंबे-छोटे सब अपने दुनियावी शान-ओ-शौकत, रिश्तेदार, खेत-खलिहान, व्यापार सब कुछ छोड़कर दो बिना सिले कपड़े पहनकर अल्लाह के सामने हाज़िरी दे रहे होते हैं, और कह रहे होते हैं — लब्बैक अल्लाहुम्मा लब्बैक।

यह दृश्य मानो हश्र का मैदान हो। मानो सभी कुछ छोड़कर केवल अल्लाह की रज़ा के लिए, एक फकीर की तरह हाज़िर हुए हैं अपने महान पालनहार के बुलावे पर।

हज के समय इन लोगों की आत्मा की पुकार कुछ इस तरह होनी चाहिए—
“ऐ अल्लाह! आज जिस तरह मैं अपनी सारी सांसारिक दौलत, पत्नी-बच्चे, घर-द्वार छोड़कर तेरे बुलावे पर इस मैदान में आकर खड़ा हुआ हूँ,
उसी तरह तेरे दीन की स्थापना के संघर्ष में मैं अपना पूरा जीवन और धन कुर्बान करके हश्र के दिन तेरे सामने एक मोमिन की इज्ज़त के साथ खड़ा हो सकूं, तू मुझे इसकी तौफ़ीक़ दे।”

पाठकगण, क्या आपने गौर किया? एक ओर उम्मत के उद्देश्य को हासिल करने के लिए सांसारिक योजनाओं और प्रयासों में भाग लेना, उम्मत के इमाम की दिशा-निर्देशों को भली-भांति समझना; और दूसरी ओर व्यक्तिगत रूप से इस सभा को हश्र की तैयारी मानकर दुनियावी लालच से खुद को अलग कर लेना — इससे बेहतर और संतुलित व्यवस्था और क्या हो सकती है?

यही है हज। वास्तविक इस्लामी हज।

लेकिन अफ़सोस हमारे नसीब का! आज हमारे पास न एक अखंड मुस्लिम उम्मत है और न ही एक इमाम। जब इमाम ही नहीं है, तो हमारे संकटों का समाधान कौन देगा? उम्मत का वार्षिक महासम्मेलन किसके नेतृत्व में होगा? निर्णय कौन देगा? कोई नहीं।

जो कुछ नेता हैं भी, वे अब उम्मत के सांसारिक संकटों के समाधान के लिए अराफ़ात के मैदान की ओर नहीं जाते, बल्कि न्यूयॉर्क, जेनेवा, मॉस्को, बीजिंग या लंदन की ओर भागते हैं।

अब तो पश्चिमी आकाओं ने तय कर लिया है कि मुस्लिम देशों को कैसे चलाया जाएगा। उन्हीं के हुक्म से हम एक उम्मत होकर 57 टुकड़ों में बंट गए। उन्हीं की मदद से हम एक-दूसरे से लड़ते हैं। उन्हीं के थोपे हुए कानूनों से हमारी राजनीति, अर्थव्यवस्था और न्याय प्रणाली चलती है।

सीधे शब्दों में कहें — अब वही हमारे प्रभु बन बैठे हैं। और उनके देश ही हमारे क़िबला बन गए हैं।

हाँ, हज तो हम छोड़ते नहीं। पैसे जोड़कर हर साल लाखों मुसलमान मक्का की ओर दौड़ते हैं। बड़े-बड़े जमावड़ों में शरीक होते हैं — लेकिन क्यों होते हैं, ये नहीं जानते।

काबा का तवाफ कर रहे हैं — लेकिन क्यों कर रहे हैं, नहीं जानते। शैतान को पत्थर मार रहे हैं — लेकिन क्यों मार रहे हैं, नहीं जानते। मुफ़्ती साहब का हज का खुत्बा सुनते हैं — लेकिन क्या कह रहे हैं, समझते नहीं।

बिना सिले कपड़े पहनकर सफ़ा-मरवा के बीच दौड़ रहे हैं — लेकिन क्यों दौड़ रहे हैं, नहीं जानते। बस इतना जानते हैं कि हज करना है, करने से बहुत सवाब मिलेगा, और जब वापस लौटेंगे तो सब हमें ‘हाजी साहब’ कहेंगे वगैरह।

तो क्या अब हज पर नहीं जाना चाहिए?

मित्रों — हज इस्लाम का एक अनिवार्य और फ़र्ज़ इबादत है, इसमें कोई शक नहीं है। इसलिए किसी को हज पर जाने से रोकने या हतोत्साहित करने का तो सवाल ही नहीं उठता। मैं बस यही समझाना चाहता हूँ कि रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि ওয়া सल्लাম) और सहाबा के दौर में जिस उद्देश्य और भावना নিয়ে हज अदा किया जाता था, आज के हज और उस हज में जमीन-आसमान का फर्क है।

आजकल जो हज हो रहा है, वह प्राणहीन, उद्देश्यविहीन और केवल रस्म-ओ-रिवाज़ों से भरा हुआ है। इसके विपरीत, वास्तविक इस्लामी हज एक जीवंत, गतिशील और इतिहास रचने वाला अमल हुआ करता था। जिस दिन यह उम्मत हज के वास्तविक उद्देश्य को सही मायनों में समझेगी और उसकी शिक्षा को अपने जीवन में लागू करेगी — वही होगा सच्चा, मक़बूल हज।

अब सवाल उठता है — वह मक़बूल हज कैसे वापस आएगा?

हाँ पाठक — उस असली इस्लामी, जीवंत हज को वापस पाने का सिर्फ एक ही रास्ता है: पूरी उम्मत को फिर से तौहीद की बुनियाद पर एक इमाम की क़यादत में एकजुट करना होगा। जिस दिन मुस्लिम उम्मत एक होगी, क़ायदे से एक नेता होगा, और अल्लाह का हुक्म चलेगा — उस दिन एक ही हज से पूरी उम्मत की सूरत बदल जाएगी, इंशा’अल्लाह।

लेकिन उस महान लक्ष्य को हासिल करने के लिए क्या हम अपनी जान-माल लगाकर संघर्ष के लिए तैयार हैं? क्या हमारे हाजी साहब तैयार हैं?

मैं यह सवाल छोड़कर जा रहा हूँ…

निष्कर्ष

हज केवल एक रस्म या आयोजन नहीं है, यह मुस्लिम उम्माह की एकता, आत्मशुद्धि और अल्लाह के रास्ते पर समर्पण का प्रतीक है। असली इस्लामी जीवंत हज हमारे जीवन में सामंजस्य, शक्ति और नई प्रेरणा लाता है। वर्तमान के यांत्रिक और निरर्थक हज से बाहर निकलने के लिए हमें एकजुट इमाम की अगुवाई में लौटना होगा, जहाँ हज केवल शारीरिक यात्रा न होकर अंतर्मन के जागरण और समाज परिवर्तन का माध्यम बने।

जब हम हज के असली उद्देश्य को समझकर उसे अपने जीवन में लागू करेंगे, तभी मुस्लिम उम्माह मजबूत होगी, विभाजन दूर होकर अल्लाह के रास्ते पर एकजुट होकर चल सकेगी। तब असली हज होगा, जो हमारे व्यक्तिगत और राष्ट्रीय जीवन में बदलाव लाएगा, अल्लाह की संतुष्टि और शांति का रास्ता बनेगा।

इसलिए, हज केवल एक बार का तवाफ या शैतान को पत्थर मारना नहीं है, यह एक आजीवन संघर्ष, एकता और दीन की स्थापना का अमर मार्ग है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

हज क्यों फर्ज है?

हज इस्लाम के पाँच स्तंभों में से एक है और सक्षम मुसलमानों के लिए जीवन में एक बार फर्ज़ किया गया है। यह अल्लाह के निकटता पाने का, तौबा और आत्मशुद्धि का एक महत्वपूर्ण माध्यम है।

हज का मुख्य उद्देश्य क्या है?

हज का मुख्य उद्देश्य मुस्लिम उम्माह की एकता स्थापित करना, अल्लाह की رضا प्राप्त करना, और आत्मा की शुद्धि करना है। यह हमारे दुनियावी और आख़िरी जीवन दोनों के लिए मंगलकारी है।

हज के समय काबा का तवाफ करने का महत्व क्या है?

काबा का तवाफ मुस्लिम उम्माह की एकता का प्रतीक है। यह हमें याद दिलाता है कि हम सभी एक ही विश्वास और उद्देश्य के मालिक हैं, और अल्लाह के सामने सभी बराबर हैं।

शैतान को पत्थर मारने का प्रतीकात्मक अर्थ क्या है?

शैतान को पत्थर मारना अन्याय, असत्य और इबलिस के खिलाफ विरोध का प्रतीक है। यह हमें सचेत करता है कि हम अन्याय और दुष्चिंताओं के खिलाफ हमेशा तैयार रहें।

हज के समय बिना सिलाई वाले सफेद कपड़े क्यों पहनते हैं?

सफेद कपड़ा हमारी समानता और भक्ति का प्रतीक है। यह सांसारिक गर्व और भेदभाव से परे जाकर सभी को अल्लाह के सामने समान स्थिति में खड़ा होना सिखाता है।

মোহাম্মদ আসাদ আলী

Asad ali

मोहम्मद असद अली एक प्रतिभाशाली लेखक एवं क्रिएटिव कंटेंट क्रिएटर हैं। वे अपने विशिष्ट अंदाज़ में यूट्यूब और फेसबुक पर नियमित रूप से शिक्षाप्रद और प्रेरणादायक सामग्री प्रस्तुत करते हैं। उनकी सशक्त अभिव्यक्ति और गंभीर विषयों की गहराई दिल को छू जाती है। उनके साथ जुड़कर आप नए दृष्टिकोण और ऊर्जा से অভिभूत होंगे।

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